धारा प्रवाह संवाद में बड़ी बाधाएं हैं फेस मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग
कोविड -19 महामारी ने नए शब्दों के आविष्कार के साथ कोशकारों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। महामारी के इस दौर ने भाषा को एक महत्वपूर्ण बिंदु पर पहुंचा दिया है। 'ए' से एसिम्प्टोमेटिक; 'बी' से बाथ; और 'सी' का मतलब कोरोना वायरस - महामारी के बीच बोलना सीख रही पीढ़ी के लिए कुछ ऐसी ही अक्षरमाला विकसित हो रही है। वयस्कों की तुलना में बच्चों का मस्तिष्क कम शब्दों को संग्रहीत कर पाता है। इसलिए वे ऐसे शब्द ही सीखते हैं जो उनके आसपास बहुत अधिक बोले या दोहराए जाते हैं।
यह आश्चर्य की बात नहीं है कि दुनिया भर के प्राथमिक स्कूलों की रिपोर्ट बताती है कि 'ब्लैकबोर्ड', 'स्कूल बस' और 'क्लास' जैसे शब्दों की जगह को 'हेडफ़ोन', 'लॉगिन' और 'म्यूट' जैसे शब्दों ने ले लिया है। इसी तरह, अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षर ए, बी, सी का परिचय कराने वाले 'एपल', 'बॉल' और 'कैट' अब 'मास्क', 'सैनिटाइज़र' और 'क्वारंटाइन' जैसे शब्दों को जगह दे रहे हैं। यह सिर्फ शब्दावली नहीं है जो बदल रही है; शैक्षणिक चुनौतियां भी बदल रही हैं।
एजुकेशन एंडोमेंट फाउंडेशन, लंदन द्वारा स्कूलों और अभिभावकों के बीच किए गए एक हालिया सर्वेक्षण में पाया गया है कि 2020 में स्कूल जाना शुरू करने वाले बच्चों को पिछले वर्षों की तुलना में सीखने के लिए अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है। सबसे बड़ी चिंता संवाद और भाषा का विकास है। इस सर्वे में 96 प्रतिशत स्कूलों ने कहा कि वे मौजूदा स्थिति से या तो "बहुत चिंतित" या "दुष्चिंतित" हैं।
बच्चों के सीखने में एक अतिरिक्त बाधा मास्क है - संवाद के दौरान होठों को हिलते हुए देखने में सक्षम नहीं होना, होठों के हिलने के साथ उससे उत्पन्न होने वाली ध्वनि की पहचान पर मास्क ने बाधा पैदा कर दी है। और सिर्फ बच्चों ही नहीं, हर किसी के लिए यह समझना मुश्किल हो गया है कि दूसरे क्या कह रहे हैं।
इतिहास गवाह है कि प्राकृतिक आपदाओं और युद्ध की घटनाओं ने किसी भी भाषा की शब्दावली को महत्वपूर्ण तरीके से प्रभावित किया है।
20वीं शताब्दी के कई अध्ययनों से पता चलता है कि द्वितीय विश्व युद्ध भाषा परिवर्तन के लिए एक महत्वपूर्ण निर्णायक मोड़ था। क्योंकि, कोविड-19 महामारी के विपरीत, द्वितीय विश्व युद्ध ऐसे लोगों को एक साथ लाया जिनका आमतौर पर एक-दूसरे से संपर्क नहीं होता था - जैसे सभी महाद्वीपों के सैनिक, महिला टेलीफोन ऑपरेटर और नर्सें। लेकिन उस दुनिया का क्या - जो आज की है - जहां लोग पहले से कहीं ज्यादा एक-दूसरे से दूर हैं?
पैंडेमिक ने घिरे लोगों को 'महामारी' जैसे शब्दों को नया जीवन देकर जीवन और वास्तविकता को साथ लेकर चलने में मदद की है, नए शब्दों को गढ़ा है : जिसका एक उदाहरण 'कोविडियट्स' है - जिनकी संख्या भारत में नगण्य नहीं है। लेकिन इसने शब्दावली और मौखिक बातचीत के मार्ग में बाधाएं भी पेश की हैं : फेस मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग धारा प्रवाह संवाद में बड़ी बाधाएं हैं। इनकी वजह से शारीरिक इशारों पर मनुष्य की निर्भरता बढ़ रही है।
क्या दृश्य संवाद या अशाब्दिक संवाद लिखित पाठ के मुकाबले छवि/तस्वीर के महत्व को और बढ़ा देगा? समाज में मौखिक संवाद के बजाय लिखित पाठ के माध्यम से संवाद को गहरा कर सकता है? दिलचस्प बात यह है कि एक अध्ययन से पता चला है कि ऑनलाइन संचार लोगों को उन पेशेवर संकेतों से वंचित कर रहा है जो स्वर की पद्धति के अभिन्न अंग हैं और जो वाक्यों को अर्थ देते हैं।
ऐसे दौर में जब सभी भाषाएं जोखिम में हैं, कुछ भाषाएं अन्य की तुलना में अधिक जोखिम में हैं। चाहे वह महामारी से संबंधित चिकित्सा जानकारी के संबंध में हो, आधिकारिक संचार का माध्यम हो या सर्वव्यापी 'क्वर्टी' कीबोर्ड हो - हर कहीं अंग्रेजी की प्रधानता का अर्थ है कि स्वदेशी भाषा, स्थानीय बोलियाँ जल्द ही खुद को सामूहिक स्मृति की कगार पर पा सकती हैं।
दृश्य संकेत - चाहे वे भौतिक हों या डिजिटल - अनुवाद में खोए हुए शब्दों को समझने के एक विकल्प के रूप में उभर रहे हैं।
महामारी के इस समय में जीवन और भाषा समान संकट में प्रतीत होती है।
(द टेलीग्राफ संपादकीय, 06.06.21 का अनुवाद)
बहुत ही सामयिक विषय पर कलम चलाई गई
ReplyDeleteहै, आजकल शिक्षा जगत में ऑनलाइन क्लासेस का ट्रेड चल पड़ा है लेकिन यह पढ़ने वाले बच्चों में समस्या खड़ी कर रहा है।
बहुत ही सामयिक विषय पर कलम चलाई गई
ReplyDeleteहै, आजकल शिक्षा जगत में ऑनलाइन क्लासेस का ट्रेड चल पड़ा है लेकिन यह पढ़ने वाले बच्चों में समस्या खड़ी कर रहा है।
Really a big question now day's.
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