'सोज़-ए-वतन : जब्ती की सच्चाई' के लेखक डॉ. प्रदीप जैन ​ने किया दावा



प्रोलिंगो न्यूज़: धनपत राय यानी उर्दू के नवाबराय और हिंदी के प्रेमचंद की लिखी उर्दू पुस्तक सोज़—ए—वतन कभी जब्त नहीं हुई और न ही इसे प्रतिबंधित किया गया। नवाबराय की यह पुस्तक 1908 में प्रकाशित हुई थी। हिंदी पाठकों के बीच यह तथ्य आम है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद नवाबराय की लेखनी पर बिरतानी हुकूमत का डंडा चला था और इसे जब्त कर लिया गया था। इस कार्रवाई के बाद ही उन्होंने नवाबराय की जगह प्रेमचंद नाम से लिखना शुरू किया था। प्रेमचंद के व्यक्तित्व एवं ​कृतित्व पर डेढ़ दशक से शोध कर रहे डॉ. प्रदीप जैन की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'सोज़—ए—वतन : जब्ती की सच्चाई' में इस तथ्य को सिरे से खारिज किया गया है। पुस्तक में दावा किया गया है कि सोज़—ए—वतन को कभी जब्त नहीं किया गया। 

प्रोलिंगो न्यूज से बातचीत में डॉ. प्रदीप जैन ने बताया कि सोज़—ए—वतन के खिलाफ उस वक्त जो भी कार्रवाई हुई उसके संबंध में 111 वर्षों में किसी ने जानने—खोजने का प्रयास भी नहीं किया। सरकारी फ़ाइलों में जो भी कार्रवाई दर्ज है उसे सिलसिलेवार मैंने अपनी पुस्तक 'सोज़—ए—वतन : जब्ती की सच्चाई' में रखा है। उन्होंने बताया​ कि उस वक्त पुस्तक को जब्त किए जाने का कोई कानून ही नहीं था। पुस्तक पर कार्रवाई जरूर हुई, लेकिन जैसा कि प्रेमचंद लिखते हैं कि​ जिलाधिकारी हमीरपुर ने उन्हें बुलाया था, यह सही नहीं है। हमीरपुर के जिलाधिकारी की इसमें कोई भूमिका नहीं है, लेश मात्र भी। सोज़—ए—वतन पर कार्रवाई की शुरुआत क्रिमिनल इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट ने की थी। उस समय शिक्षा महकमा गृह विभाग के अंतर्गत होता था। क्रिमिनल इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट और गृह विभाग ने मिलकर कार्रवाई की थी। इस कार्रवाई के तहत प्रेमचंद ने लिखित स्पष्टीकरण दिया था। स्पष्टीकरण देने का ज़िक्र प्रेमचंद ने कहीं नहीं किया है। पुस्तक 'सोज़—ए—वतन : जब्ती की सच्चाई' में प्रेमचंद द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण भी प्रकाशित है। 

डॉ. प्रदीप जैन ने बताया कि प्रेमचंद ने जो लिखित स्पष्टीकरण दिया था उसे अस्वीकार करते हुए उस समय के संयुक्त प्रांत के लेफ्टिनेंट जनरल ने अंतिम आदेश पारित किया था। यह कार्रवाई कुल पांच महीने तक चली थी। डॉ. प्रदीप जैन ने बताया कि प्रेमचंद सरकारी मुलाज़िम थे। यही कारण है कि उन पर कार्रवाई की गई। 

प्रेमचंद की हैसियत या साहित्यिक अवदान पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता : प्रोफेसर शाही 
वहीं इस संबंध में प्रेमचंद साहित्य संस्थान के निदेशक प्रोफेसर सदानंद शाही ने कहा कि यह दावा औचित्यहीन है। उन्होंने कहा, मैंने यह पुस्तक पढ़ी तो नहीं है लेकिन मान भी लें कि सोज़—ए—वतन जब्त नहीं हुई थी तो इससे क्या फ़र्क पड़ता है? क्या इससे प्रेमंचद का कद घट या बढ़ जाएगा? इससे प्रेमचंद की हैसियत या साहित्यिक अवदान पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता। प्रोफेसर शाही ने कहा, कोई तो बात थी कि उन्हें नाम बदलकर लिखना पड़ा था। वह नवाबराय से प्रेमचंद हो गए थे। अंग्रेजों का जमाना रहा हो या आज का दौर, सरकारी नौकरी की कद्र हर समय थी। प्रेमचंद ने क्यों 1921 में इस सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया? प्रेमचंद ने अपने साहित्य में जो सवाल उठाए हैं, उन पर केंद्रित कोई नया शोध, कोई नई चर्चा हो तो उसका स्वागत है। इस तरह के शोध या अध्ययन से क्या होना है। प्रेमचंद को आज किसी के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है। 

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