पुस्तक समीक्षा | संजय तिवारी, संपादक, संस्कृति पर्व

समें तो कुछ बचा ही नहीं। सब है। समाज, सोच, संवेदना, संकोच, शील, सहनशक्ति। एक स्त्री के जीवन के भाव भी, अनुभव भी। डॉ. सीमा त्रिपाठी का यद्यपि यह प्रथम काव्य संग्रह है लेकिन लगता नहीं की यह कलम इतनी नई है। इसमे विचारों या तथ्यों की नहीं बल्कि अनुभूति की धरोहर है। अनकही अभिव्यक्ति शीर्षक का यह संग्रह कई मायनों में अद्भुत है।

भारतीय समाज-शास्त्र एक ओर सैद्धान्तिक तौर पर नारी को आदर और सम्मान का पात्र घोषित करता है और "यत्र नार्यन्ति पूज्यंते तत्र रमन्ते देवता" जैसी उद्घोषणाएँ करता है तो दूसरी ओर उसे दासता की बेड़ियों में बाँधकर रखता है। स्त्रियों के प्रति वस्तुवादी और भोगवादी मानसिकता से ग्रस्त पुरुष समाज उसके लिए ऐसी ही भाषिक अभिव्यक्तियाँ भी गढ़ लेता है जो उसे उसे महज उपभोग की वस्तु की पहचान दिलाता है। स्त्री उपरोक्त आदर्शमूलक घोषणाओं के बावजूद भी  समाज में स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार से वंचित है।


नारी जीवन की ऐसी ही अनेक अनकही विसंगतियों और वर्जनाओं पर यह पुस्तक केंद्रित है, जिसमें गर्भ में पल रही एक बच्ची के मनोभावों से लेकर बूढ़ी, बेबस, लाचार मां तक की व्यथा का सजीव वर्णन किया गया है। नारी जीवन के हर पक्ष को उकेरा गया है- चाहे वह सशक्त हो या लाचार। इन कविताओं में आधुनिकता की दौड़ में फंसी महिलाएं दिखतीं हैं तो पति को परमेश्वर मान कर उसके हाथों अग्निदाह पाकर स्वर्ग जाने की भावना से ओतप्रोत स्त्रियां भी नजर आतीं हैं। प्रेयसी के मन की अकुलाहट भी है और संबधों के बिखराव का दर्द भी।

इस पुस्तक की वैसे तो सभी कविताएं बहुत अच्छी हैं परंतु कुछ कविताएं बेहद उत्कृष्ट हैं जैसे, गुजरा जमाना याद आता है, गर्भ में ही मारो, खुद के लिए तू जीना सीख, महफिल की जान, मां, जीवन बीत गया, तुमको भी सिखला दूं बोलो, फोन का कनेक्शन, उन्माद, सहना सीखो, जीवन भर जलना होगा, इत्यादि कविताएं। इन कविताओं का कथ्य, सत्य और गयात्मकता, लयात्मकता तथा भावात्मकता को तर्क के साथ इस तरह प्रस्तुत किया गया है जिससे समकालीन जीवन का यथार्थ समग्रता में उभर आता है। संग्रह की कुछ कविताओं में एक विशेष प्रकार की बेचैनी और छटपटाहट दिखती है। सीमा की रचनाओं में जो स्त्री उपस्थित है वह एक साथ कई भावों और रूपों में है। 

"तुमको भी सिखला दूं बोलो" शीर्षक की कविता में वह कहती हैं-

इतना साहस मेरे अंदर 

धारा का रुख मोड़ दूं बोलो, 

पत्थर को पिघला दूं पल में 

तारे सारे तोड़ दूं बोलो।। 


चट्टानों पर फूल खिला दूं 

बंजर से भी अन्न उगा दूं,

बरसों से सूखी धरती को 

बूंदों से नहला दूं बोलो।। 


ऐसे अनगिनत उड़ानों को रेखांकित करती कवयित्री आगे बढ़ रही है। "सहना सीखो" शीर्षक में वह लगभग पीड़ा और परिदृश्य को एक में  घोल रही है-


औरत हो तो सहना सीखो 

तन घायल या मन घायल हो, 

कभी नहीं कुछ कहना सीखो 

सहना सीखो।।


तुमको वस्तु बनाया सबने 

हर जगहों पर सजाया सबने, 

उचित दाम मिलने पर ही तो 

लोगों तक पहुंचाया सबने?


कुछ तो उनका मान करो 

कभी नहीं तुम लड़ना सीखो 

सहना सीखो।। 


आगे वह और परवाह में दिखती है। झल्लाती भी है। सोचती भी है। स्पष्ट उद्घोष की तरह बांचती जाती है। एक स्त्री कैसे क्या—क्या बनती और बंटती रहती है। ये पंक्तियां स्वयं में हस्ताक्षर छोड़ जाती हैं-


नारी तुम केवल श्रद्धा हो 

नारी तुम केवल अबला हो 

क्या फर्क पड़ा उसको चाहे 

वो अबला हो या सबला हो।।


मैंने देखा हर नारी को 

चाहे जितनी सबला वो हुई 

जब मां वो बनी, पत्नी वो बनी 

कमजोर हुई सहती ही गई।।


पुरुषों के बिना कुछ कर न सकी 

रातों में अकेली निकल ना सकी 

भीड़ों में घुसकर लड़ ना सकी 

अपनी चाहत पर अड़ न सकी।।


उड़ती-पड़ती कातर नजरें 

हर जगह है इज्जत खतरे में 

गर प्यार की चाहत कर बैठी 

तो लुट जाएगी अपनों में ।। 


यह क्रम एक अविरल धारा बनकर जैसे प्रवाहित हो रहा। संग्रह की प्रत्येक रचना में अलग अलग भाव, पीड़ा फिर भी केंद्र में स्त्री तत्व की उपस्थिति और परिस्थिति। यह विशिष्ट बनाता है इस संग्रह को। कवयित्री जब भ्रूण हत्या जैसे विषय उठाती है तो बहुत कुछ कहने लगती है। यथार्थ भी और स्थिति भी।

कोई पाप नहीं होगा, हिम्मत न अरे हारो,

यदि मारना है मुझको, तो गर्भ में ही मारो।।


जब जन्म के समय मैं, देखूंगी उतरे चेहरे,

जब मां को तिरछी आंखों से, 

दुत्कारा जाएगा।

जब प्यार को तरसूंगी, कोई गोद भी न लेगा, 

उम्मीद में ही बचपन सब गुजारा जाएगा।।


इन सबके बावजूद कवियित्री का विश्वास, उसकी आस्था, उसकी सनातन सोच और सकारात्मक स्वभाव के शब्दों का प्रवाह भी दिखता है। जब श्रीकृष्ण जन्मोत्सव के लिए वह लिखती है-

हे नन्दनन्दन कब आओगे. .! 

कब मुरझाए इन चेहरों पर

खुशियां बन के छाओगे।

हे नन्दनन्दन कब आओगे. . ! 


तुमने धर्म युद्ध बतलाया

तुमने गीता ज्ञान पढा़या

लेकिन धर्म विलुप्त हो रहा

अब तो नंगा युद्ध हो रहा 


खून की प्यासी दुनियां को

कैसे अब धर्म सिखाओगे

हे नन्दनन्दन कब आओगे. .! 


समाज, सोच, संवेदना, संकोच, शील, सहनशक्ति और स्वभावगत विशेषताओं की व्याख्या करती 51 कविताओं का यह संग्रह आपको अनेक अनकहे मनोभावों का रसास्वादन कराएगा, जिसमें नारी जीवन की प्रत्येक अवस्था के बहुतेरे रंग परिलक्षित होंगे।

इन कविताओं में नारी की मन:स्थिति, परिस्थिति और अवस्थिति का सजीव वर्णन किया गया है जो नि:सन्देह किसी भी मानव हृदय को झकझोर देगा तथा उसे चिन्तन-मनन हेतु विवश कर देगा।

यह गंभीर और सुखमय है कि पुस्तक की मुख्य भूमिका प्रख्यात साहित्यकार डॉ कन्हैया सिंह ने स्वयं लिखी है। भूमिका में ही वह कहते हैं- इस पुस्तक की रचनाएं समय की मांग हैं। बड़े-बड़े मुद्दों को सहज शब्दों में पिरो कर प्रस्तुत किया गया है। संकलन में व्यंग्य और कटाक्ष की धारदार तलवार समाज को सोचने और मनन करने पर विवश कर देगी, ऐसा मेरा मानना है। इस संकलन में काव्य सृजन की तीनों लोकप्रिय शैलियों गीत-मुक्तक-ग़ज़ल का समावेश है जो इसे और रोचक बनाता है। निसंदेह इन मनोभाव को समझने के लिए पाठकों को गहरे उतरना पड़ेगा।

गार्गी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ श्रीनिवास त्यागी, इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के डॉ. पवन विजय, और प्रख्यात उपन्यासकार तथा भाषाविज्ञानी कमलेश कमल की संपादकीय टिप्पणियों ने इस संग्रह को और भी गंभीर बना दिया है। डॉ. श्रीनिवास त्यागी लिखते हैं - इस संकलन की कई कविताएं बेहद ही उत्कृष्ट हैं। इन कविताओं का कथ्य, सत्य, लयात्मकता तथा भावात्मकता को तर्क के साथ इस तरह प्रस्तुत किया गया है जिससे समकालीन जीवन का यथार्थ समग्रता में उभर आता है। डॉ. पवन विजय की टिप्पणी है- डॉ. सीमा त्रिपाठी की रचनाओं की सबसे ख़ास बात यह है कि ये बिना लाग लपेट, बिना रंग रोगन के कही गयी हैं। एक संवेदनशील व्यक्ति होने का प्रभाव इनकी रचना में स्पष्ट दिखता है जब ये अपने आस पास के दुःख, पीड़ा और अनुभूतियाँ पंक्तियों में पिरोकर सामने रखती हैं। उनकी रचनाओं में हलके फुल्के हास्य भी दिख जाते हैं जो महीन अवलोकन के माध्यम से ही लिखा जा सकता है। कमलेश कमल लिखते हैं- वस्तुतः आज की कविता 'युग-धर्म' को अनुभूति के स्तर पर अंकित करने की युति है। जब कोई इसमें नवाचार और बेबाक़ीपन मिलाने का यत्न करे, तो उसकी तरफ़ ध्यान आकृष्ट होता है। डॉ. सीमा त्रिपाठी एक ऐसी ही कवयित्री हैं।

काव्य संग्रह - अनकही अभिव्यक्ति
कवयित्री - डॉ. सीमा त्रिपाठी
मूल्य -  180 (हार्ड कवर)
प्रकाशक - ओमेगा पब्लिकेशन, दरियागंज, नई दिल्ली
भूमिका - डॉ. कन्हैया सिंह (पूर्व अध्यक्ष उप्र भाषा संस्थान)

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