आलेख | पड़ताल  

जगदीश लाल
| वरिष्ठ पत्रकार
मारे समय का एक बहुत ही चलताऊ जुमला है- अंग्रेज़ चले गए अंग्रेज़ियत छोड़ गए! यह जुमला जितना ही सतही हो और व्यंग्य में कहा गया हो पर यह हमारी व्यवस्था की पोल जिस तरह खोलता है, उसके लिए इससे सटीक दूसरी कोई अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। हालांकि मैकाले की अँग्रेजी शिक्षा नीति के प्रस्ताव में भविष्य के भारत को इसी तरह संरचित करने की बात काफी सलीके से कही गयी थी और यह तब भी स्पष्ट ही था कि काली चमड़ी वाली अँग्रेज़ीदाँ पीढ़ी हर क्षेत्र में व्यवस्थात्मक अभिजात्य बनाकर रखेगी ही, परंतु स्वतंत्रता संघर्ष के समय के हिन्दी आंदोलन, महात्मा गांधी जैसे प्रभावशाली अहिंदी भाषी नेताओं द्वारा हिन्दी की वकालत और स्वतन्त्रता प्राप्ति जैसी घटनाओं और बदली परिस्थितियों में जब संविधान सभा द्वारा यह उद्घोषणा की गई की हिन्दी संघ की राजभाषा होगी तब यह विश्वास एक बार को जरूर जगा कि अब अंग्रेजीयत और भाषाई अभिजात्य का चोला शायद उतर जाए और हमारा समाज खुद को अपने सहज रूप में स्वीकार कर ले लेकिन राजभाषा अधिनियम 1963 ई॰ के प्राविधानों से रही-सही उम्मीद भी गई। खैर, यह सारी बात तब की है जब भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक जगत में उत्तर-औपनिवेशिकता का डंका नहीं बजा था और न ही देरीदा और फूको ने शक्ति और सत्ता को विरचित करने के विमर्श की शुरुआत की थी। देरीदा, फूको और सईद जैसे विद्वानों द्वारा न केवल औपनिवेशिक शासन, बल्कि उसकी विरासत, और शक्ति तथा सत्ता के हर केंद्र को विरचित कर परिधि की अस्मिताओं के हक की बात करने को सैद्धान्तिक आधार दिए जाने के बाद एक बार फिर देशजता, क्षेत्रीयता, स्थानीयता, और वंचित वर्गों का अपने हितों के लिए दावा और पुख्ता हुआ है। उत्तर-औपनिवेशिक, उत्तर- आधुनिक के साथ ही साथ मानवाधिकार विमर्श भी इन्हीं बदली हुई वैचारिक-राजनैतिक परिस्थितियों की देन है जिसका भारतीय संदर्भ नागरिक और लोकतान्त्रिक अधिकारों की लड़ाई से शुरू हो कर भारत को एक उदारवादी लोकतन्त्र की बजाय एक उत्तर-औपनिवेशिक लोकतन्त्र के रूप में परिभाषित करने की ओर अग्रसर है। नागरिक और लोकतान्त्रिक अधिकारों के साथ ही साथ अब स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और वंचित वर्गों के अधिकारों की मांग ज़ोरों पर है और साथ ही न्यायिक सक्रियता, जनहित याचिका, सूचना का अधिकार आदि के माध्यम से इन अधीनस्थ अस्मिताओं को प्रभावशाली बनाने का प्रयास भी किया जा रहा है। परंतु इन सारे प्रयासों के बावजूद अभी भारतीय व्यवस्था में विदेशी और देशी, अँग्रेजी और हिन्दी, अभिजात्य और गंवार का जो तनाव बना हुआ है वह इन सारे प्रयासों पर न केवल पानी फेर रहा है बल्कि भारतीय मानवधिकार विमर्श के दावे की कलई भी खोल रहा है क्योंकि नागरिकों को जब तक अपनी जबान में अपनी बात कहने का अधिकार न हो, अपनी भाषा में न्याय पाने और न्याय की गुहार लगाने का अधिकार न हो, उनके भाषाई अधिकारों की साफ अवहेलना हो रही हो तब तक मानवाधिकार विमर्श की कोई भी बात बेईमानी है।

बदले हुए वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भाषाई अधिकारों को लेकर न केवल स्थानीय सरकारें गंभीर हुई हैं बल्कि पूरी दुनिया में इस विषय पर लोगों की संवेदनशीलता बढ़ी है। हालांकि समान भाषाई अधिकार 1948 ई॰ से अस्तित्व में आए मानवाधिकारों की वैश्विक उद्घोषणा में एक श्रेणी हैं, पर इनमें भाषाई अधिकारों पर अलग से या विशिष्ट रूप में कुछ नहीं कहा गया है। भाषाई अधिकारों पर वैश्विक उद्घोषणा होने के बावजूद उस समय तक ऐसे कोई दिशा-निर्देश लिखित नहीं थे जिनके आधार पर इन अधिकारों की बात की जा सके। इस दिशा में जो कुछ लिखित उद्घोषणाएँ और दिशा-निर्देश विभिन्न समूहों द्वारा बनाए और प्रस्तावित किए गए हैं वे इस प्रकार हैं- यूरोपीयन कन्वेंशन ऑन ह्यूमन राइट्स, यूरोपीयन चार्टर फॉर रीजनल ऑर माइन्योरिटी लैंगवेज़, फ्रेमवर्क कन्वेंशन फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ नेशनल माइन्योरिटी, इन्टरनेशनल कावेनेन्ट ऑन सिविल एंड पोलीटिकल राइट्स, यूनिवर्सल डेक्लेरेशन ऑफ द कलेक्टिव राइट्स ऑफ द पीपुल। इस संबंध में सबसे अंत में और सबसे महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय यूनिवर्सल डेक्लेरेशन ऑफ लिंगुइस्टिक राइट्स जिसे बार्सिलोना डेक्लेरेशन भी कहते हैं, का स्थान आता है। हालांकि अपने प्रयासों के बावजूद इस उद्घोषणा पर यूनेस्को की आधिकारिक मुहर नहीं लगी पर विलुप्त होने की स्थिति में पहुँच गई भाषाओं और भाषाई अधिकारों के संदर्भ में आवाज उठाने वाली इस उद्घोषणा को अंतर्राष्ट्रीय पेन एसोसिएसन के सदस्य देशों और कई गैर-सरकारी संगठनो ने हस्ताक्षरित किया है।

ये उद्घोषणाएँ ज़्यादातर विलुप्त होने के खतरे से जूझ रही और अलपसंख्यक भाषाओं संबंधी अधिकारों से जुड़ी हुई हैं। पर इस संदर्भ में यह समझना आवश्यक है कि भाषाई अधिकारों की लड़ाई कई स्तरों पर लड़े जाने की जरूरत है। साम्राज्यवाद के समय में गिरमिटियाओं से शुरू हुए व्यापक मानवीय विस्थापन, बढ़ी व्यापारिक गतिविधियों, विश्व-युद्धों, कई भौगोलिक क्षेत्रों का दीर्घावधिक औपनिवेशीकरण और अब बड़े स्तर हुए वैश्वीकरण ने न केवल सामाजार्थिक और राजनैतिक संकट को गहराया है बल्कि मानवीय अभिव्यक्ति, मौलिकता और भाषायी अधिकारों पर सबसे गहरी चोट की है। जहां बहुत सी आदिवासी भाषाएँ वैश्वीकरण की वजह से विलुप्त होने की कगार पर हैं वहीं भारतीय उपमहाद्वीप के बहुसंख्यक अपनी भाषा में न्याय पाने और विधिक कार्य कर पाने तक के अधिकार से वंचित हैं। इसलिए भाषाई अधिकारों की लड़ाई को विधिवत समझे जाने की जरूरत है और इस संबंध में उठाई जाने वाली मांगों के संदर्भ को और व्यापक करने की जरूरत है।

भारतीय संदर्भ में ऐसा नहीं कि भाषाई अल्पसंख्यकों के हितों का ध्यान नहीं रखा गया, संविधान में कई ऐसे प्राविधान हैं जो भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए विविध उपाय प्रस्तुत करते हैं। परंतु यहाँ भी उक्त कथिक अंतर को समझे जाने की जरूरत है कि भाषाओं और भाषिक समूहों को विलुप्त होने के संकट से बचाना एक बात है और बहुसंख्यक आबादी और तबके को अपनी ही भाषा के व्यवहार से वंचित कर विदेशी भाषा सीखने को बाध्य करना दूसरी बात! हालांकि दो सौ सालों के औपनिवेशीकरण और अँग्रेजी आधारित शिक्षा पद्धति द्वारा एक लंबे समय तक मूल निवासियों की चेतना का परिष्कार किए जाने के बाद एक बड़ा तबका, जैसा कि पहले भी कहा गया है, अब वैसे भी विदेशी ही हो गया है! या कहें तो औपनिवेशीकरण की इस दीर्घावधि में देशी और विदेशी, स्थानीय और वैश्विक, स्व और अन्य में इस तरह का निर्वात पैदा हो गया है जो कि अब पाटना मुश्किल हो रहा है! औपनिवेशिक भाषाई नीतियों ने न केवल देश का विभाजन कराया और अब स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के भाषाई प्राविधानों और व्यवहार ने देश के एक बड़े हिस्से को मूक कर रखा है, यह व्यवस्थात्मक अभिजात्य नहीं तो और क्या है ? गुलाम रह चुके देश द्वारा अपने पूर्व शासकों की शासन व्यवस्था को स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी कुछ बदलावों के साथ बनाए रखना, और उस सब से बढ़ कर स्वतंत्र हो चुके देश में न्यायिक और विधिक कार्य विदेशी भाषा में होना भारतीयों का अपनी औपनिवेशिक विरासत के प्रति मोह होना नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? आज के तकनीकी सम्मत युग में भारत की भाषायी विविधता और सम्प्रेषण की समस्याओं के नाम पर किसी विदेशी भाषा के व्यवहार को कब तक न्यायोचित ठहराया जा सकेगा ? भारतीय भाषिक और न्यायिक व्यवस्था के कई लूप-होल हैं जिन पर ध्यान दिए जाने और संवेदनशीलता से विचार किए जाने की आवश्यकता है।

मानवाधिकार विमर्श के वर्तमान युग में अंतर्राष्ट्रीय दिशानिर्देशों से बाध्य हो कर या स्वतः चेतन से, नागरिक और लोकतान्त्रिक अधिकारों की दिशा में काफी प्रगति हुई है। जनहित याचिका और सूचना के अधिकार ने भारतीय न्यायिक तंत्र में जो न्यायिक सक्रीयता लाई है, लोकतान्त्रिक चुनावी प्रक्रिया में जो सुधार हुए हैं, वह अभूतपूर्व है। एक ओर न्यायिक और लोकतान्त्रिक व्यवस्था की यह प्रगति है और दूसरी ओर व्यवस्थात्मक अभिजात्य के कारण उपजी न्यायिक मूकता और निर्वात है जिसके कारण भारतीय समाज का एक बड़ा तबका अपनी समस्याओं को कह पाने में, अपनी आवाज उठा पाने में और यहाँ तक कि न्याय तक पाने से वंचित है। आए दिन ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं जब भाषाई व्यवधान के कारण कोई व्यक्ति न्याय पाने से या तो वंचित रह जाता है या फिर न्याय उसके पक्ष में नहीं होता। वर्षों के अपने पत्रकारिता के अनुभव में मैंने ऐसी कई घटनाएँ देखीं हैं जब या तो किसी दीन-हीन गंवार की प्राथमिक सूचना रिपोर्ट ही दर्ज न हुई क्योंकि घंटों माथा फोड़ने के बावजूद थाने पर तैनात अफसर को उसकी बात ही न पल्ले पड़ी। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय भाषाओं में काफी विविधता है। इस भाषिक वैविध्य का हाल यह है अगल-अलग भाषाओं की बात छोड़ दें तो क्षेत्र बदलने के साथ एक भाषा की विभिन्न बोलियों में ही इतना अंतर आ जाता है कि एक-दूसरे को बात संप्रेषित न हो सके। कई बार स्थानीय शब्दावली की भिन्नता जैसे कि प्रदेश के पश्चिम क्षेत्र में उपले को बोंगा-बिटौरा, पाणा-पाणी को कटरा-कटरी, गिट्टी को बदरपुर, हंसिया को बालकटी कहने के कारण मुझे स्वयं कई बार खबरों के परिप्रेक्ष्य को समझने और संपादित करने में समस्या का सामना करना पड़ा है।

विदेशी भाषा व्यवहार, आंचलिक शब्दों और भाषायी विविधता के कारण उपजी समस्या के कारण केवल सम्प्रेषण संबंधी व्यवधान नहीं खड़े होते बल्कि कई बार न्याय पाने जैसे प्राथमिक अधिकारों का हनन हो जाने जैसी गंभीर समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। इस समस्या और इससे संबन्धित कुछ उदाहरण आज के चर्चित पत्रकार रवीश ने अपने प्रचलित कार्यक्रम प्राइम टाइम में “अपने लिए कब तक लड़ती रहेंगी भारतीय भाषाएं ?” में उठाए हैं। प्रसिद्ध हिन्दी लेखक और प्रशाक रहे अशोक वाजपाई के अनुभवों का हवाला देते हुए रवीश एक प्रकरण बताते हैं कि कैसे मध्यपदेश के महासमुंद में अनुभाग में एक बुढ़िया के मामले की सुनवाई में वकील कैसे उसे बेवकूफ बना कर फीस बनाते रहे और किस प्रकार जब मामला अनुभागीय अधिकारी के सामने आया तब ‘लबरा’ जैसे एक शब्द की व्याख्या और उस बुढ़िया की गवाही ने पूरे मामले की दिशा बदल दी और कैसा अन्याय होते-होते बचा।

इन सारी बातों और तथ्यों के बावजूद हिन्दी और आम भारतीय भाषाओं के भारतीय न्यायिक व्यवस्था में स्थान पाने के सारे प्रयास एक-एक कर के असफल होते जा रहे हैं। सन 2015 में वरिष्ठ वकील शिव सागर तिवारी ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की आधिकारिक भाषा अँग्रेजी की जगह हिन्दी हो! त्रिपाठी की यह याचिका न केवल खारिज हुई बल्कि उन्हें इस तरह कि याचिका दायर करने के लिए फटकार भी पड़ी। उच्चतम न्यायालय का तर्क यह रहा कि संविधान के प्राविधान को बदलने का अधिकार उन्हें नहीं है और तत्सबंधी प्रयास विधायिका और विधि निर्माताओं द्वारा किए जाने चाहिए।

बहरहाल, यह तथ्य है कि भारत एक बहुभाषी देश है पर यह भी सत्य है कि प्रत्येक नागरिक अपनी भाषा में व्यव्हार करने में अपनत्व का अनुभव करता हैl ऐसे में स्वतंत्रता के बाद से ही यह प्रश्न उठता रहा है कि भारत का अपना विधि-विधान उसकी अपनी भाषा में क्यों नहीं है ? यह इसलिए भी आवश्यक है ताकि लोकतान्त्रिक और नागरिक अधिकारों की भांति कानून व्यवस्था में भी जन समुदाय की भाषा व्यवहारिक हो जाय और भारतीय न्यायिक विधान उन्हें डराने की बजाय अपना सा प्रतित होने लगे; जिसमें वे न केवल अपनी बात कह सकें बल्कि अपनी समस्याएँ, प्रताड़नाएँ और शिकायतें दर्ज करा सकें और समुचित निष्पक्ष न्याय भी पा सकें। परन्तु इसके उलट विधि-व्यवस्था के अंग्रेजी प्रधान होने से भारत का 80 करोड़ (हिंदी भाषा के सन्दर्भ में) जन-गण निषप्रयास ही लोकतंत्र की मूल भावना से कट गया है l बहुताधिक मानव समाज को न्यायिक वाद-विवाद समझ में ही नहीं आते और वे अधिवक्ताओं के वाद-विवाद में उलझकर रह जाते हैं; लेकिन अब समय आ गया है कि जब-तक भारत अपनी क्षेत्रीय या देशज भाषाओँ में अपना विधि-विधान तैयार नहीं कर लेता तब-तक वह उसकी प्रधान भाषा हिंदी में लिखा जाय l भारतीय भाषिक विविधता जैसी समस्याओं का समाधान तकनीकी के माध्यम से पाया जा सकता है, अनुवाद, दुभाषियों और तकनीकी सहायता के माध्यम से आज के तकनीकी उन्नत युग में भाषायी सम्प्रेषण की बाधाएँ पार करना इतना कठिन नहीं रहा गया है। जब गूगल जैसी और अन्य व्यापारिक वेबसाईटें बहुभाषी हो सकती हैं, भाषायी समस्याओं का समाधान व्यापार और वाणिज्य के लिए पाया जा सकता है तो इन उपायों का उपयोग लोगों को न्याय दिलाने के लिए क्यों नहीं किया जा सकता है ? अब समय आ गया है जब भारतीय न्याय तंत्र अपना औपनिवेशिक मोह और व्यवस्थात्मक अभिजात्यता छोड़े, तकनीकी के प्रयोग से लोगों को भाषायी अधिकार प्रदान कर न्यायिक निर्वात और मूकता को समाप्त करे और सही मायने में उत्तर-औपनिवेशिक लोकतन्त्र बने!


References
1. Do "Language Rights" Serve Indigenous Interests? Some Hopi and Other Queries Author(s): Peter Whiteley Source: American Anthropologist, Vol. 105, No. 4, Special Issue: Language Politics and Practices (Dec., 2003), pp. 712-722 
2. https://khabar.ndtv.com/news/blogs/prime-time-intro-for-how-long-will-indian-languages-fight-651126 
3. http://www.dnaindia.com/india/report-supreme-court-dismisses-pil-on-use-of-hindi-in-official-language-2198272

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