साम्राज्य का विस्तार कैसे होता है? शक्ति से, बंदूक से, दमन से, फौज से? औपनिवेशिक काल के दौरान ब्रिटिश हुकूमत ने हिंदुस्तान में जो किया और दुनिया के इतिहास में जो कहानियां दर्ज हैं — उसके सबक यही हैं। लेकिन एक और हथियार है जो इन सबसे कहीं आगे तक अपना असर छोड़ता है। और वह है भाषा। दुनियाभर में अगर आज अंग्रेजी अपनी पैठ के लिहाज से सबसे शक्तिशाली है तो उसका कारण साम्राज्यवादी ताकत के द्वारा उसका एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाना है। 

आज दुनिया के हालात पूरी तरह से बदल गए हैं पर पुराने सबक अब भी अपनी अहमियत कायम रखे हुए हैं। परमाण हथियार, जैविक हथियार के जरिये अपने साम्राज्य के विस्तार की जंग के व्यापक तबाही भरे नतीजे दुनिया देख चुकी है। इन हथियारों का उपयोग करने वाली ताकतें भी पुराने पड़ चुके इन तरीकों से लड़ाई लड़ने में रुचि नहीं ले रही हैं। अब ये हथियार केवल धमकी देने के काम आते हैं। ऐसे वक्त में भाषा अब कहीं कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल होने लगी है। हथियार किसी एक पीढ़ी को नुकसान पहुंचा सकते हैं, लेकिन भाषा का हथियार कई पीढ़ियों को तबाह कर सकता है। 

विदेशी आक्रांताओं के दौर में भाषाओं की टकराहट का हमने कौन सा रूप देखा है? जिस सदी में जो शासक रहे, उनकी भाषा ही सीखने—बोलने का चलन रहा। जनता को शासक की भाषा ही बोलने की मजबूरी थी। यह थोपी गई भाषा होती थी, जो जनता की जुबां पर मुश्किल से चढ़ती थी और एक—दो पीढ़ी में शासक के बदलते ही बदल जाती थी। हिंदुस्तान इस घटना का सबसे बड़ा गवाह रहा है। हजार वर्षों से भाषाओं के जितने स्वरूप हिंदुस्तान ने देखे हैं, उतने शायद ​दुनिया के किसी भी देश ने नहीं देखे। भाषाओं को समेटने की ताकत हममें पहले से ही थी या विभिन्न विदेशी शासकों के एक लंबे दौर ने यह क्षमता विकसित कर दी, यह कहना मुश्किल है। 

भाषाई हथियार से युद्ध का ताज़ा संदर्भ चीन का है। रणस्थल है तिब्बत। तिब्बत से आई कुछ रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन यहां के लोगों को अपनी भाषा में रंग देने में जुटा है। हालांकि चीन का यह पैंतरा नया नहीं है, लेकिन उसने अब मंदारिन को लगभग अनिवार्य बनाकर छोड़ा है। तिब्बत में 2014 में हुई जनगणना के मुताबिक वहां की जनसंख्या लगभग 31 लाख 38 हजार थी। महज 31 लाख की जनसंख्या वाले तिब्बत को पीढ़ी—दर—पीढ़ी मंदारिन सिखाकर वह मूल भाषा—संस्कृति को खत्म कर देने में जुटा है। कोई आश्चर्य नहीं कि उसकी इस चाल के नतीजे जल्द दिख जाएं। 




काउंसिल आन फॉरेन रिलेशन की एक रिपोर्ट बताती है कि किसी तरह से चीन तिब्बत में भाषा की जरिये अपनी पैठ कायम करने में जुटा हुआ है। इस रिपोर्ट में ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि तिब्बत में चीन की द्विभाषा नीति नई पी​ढ़ी के मस्तिष्क को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में लेने की एक साजिश है। यहां अभिभावकों को अपने तीन साल तक के बच्चों को चीनी शिक्षा नीति के तहत संचालित होने वाले किंडरगार्टन में दाखिला दिलाना होता है। यह अनिवार्य है। इन किंडरगार्टन में बच्चे की मातृभाषा की अहमियत धीरे—धीरे घटा दी जाती है और अंत में उसे हाशिये पर कर दिया जाता है। इस रिपोर्ट में  ल्हासा के स्थानीय निवासी की आपबीती का हवाला दिया है। उस नागरिक की तीन साल की बच्ची कुछ माह तक चीनी शिक्षा पद्धति वाले बाई—लिंगुअल किंडरगार्टन में गई। एक दिन वह घर आई तो केवल मं​दारिन में बात कर रही थी। वह अपनी मातृभाषा भूल चुकी थी। बच्ची अपने दादा—दादी की बातें नहीं समझ पा रही थी, क्योंकि वे दोनों केवल तिब्बती जानते थे। 

इस रिपोर्ट से सहज समझा जा सकता है कि तिब्बत की पूरी आबादी की जुबां पर मंदारिन को रोपने में वक्त नहीं लगेगा। भाषाई हथियार की यह जंग नई नहीं है। दुनिया में इसके ढेर सारे उदाहरण भरे पड़े हैं। लेकिन यहां बात नई सिर्फ इतनी है कि भाषा का हथियार परमाणु या जैविक हथियार से कहीं आगे तक असर रखता है। 


1 Comments

Post a Comment

Previous Post Next Post