अपने
साहित्य में भारतीय वाग्मिता और अस्मिता को व्यंजित करने के लिये प्रसिद्ध रहे श्री विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून 1912 को मीरापुर, ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। उनकी शिक्षा-दीक्षा पंजाब में हुई। उन्होंने 1929 में चंदूलाल एंग्लो-वैदिक हाई स्कूल, हिसार से मैट्रिक की परीक्षा पास की। तत्पश्चात् नौकरी करते हुए पंजाब विश्वविद्यालय से भूषण, प्राज्ञ, विशारद, प्रभाकर आदि की हिंदी-संस्कृत परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से ही बीए भी किया।

विष्णु प्रभाकर जी ने कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, निबंध, एकांकी, यात्रा-वृत्तांत और कविता आदि प्रमुख विधाओं में लगभग सौ कृतियाँ हिंदी को दीं। उनकी ‘आवारा मसीहा’ सर्वाधिक चर्चित जीवनी है, जिस पर उन्हें ‘पाब्लो नेरूदा सम्मान’, ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ सदृश अनेक देशी-विदेशी पुरस्कार मिले। प्रसिद्ध नाटक ‘सत्ता के आर-पार’ पर उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ मिला तथा हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा ‘शलाका सम्मान’ भी। उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के ‘गांधी पुरस्कार’ तथा राजभाषा विभाग, बिहार के ‘डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान’ से भी सम्मानित किया गया। विष्णु प्रभाकर जी आकाशवाणी, दूरदर्शन, पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रकाशन संबंधी मीडिया के विविध क्षेत्रों में पर्याप्त लोकप्रिय रहे। देश-विदेश की अनेक यात्राएँ करने वाले विष्णु जी जीवन पर्यंत पूर्णकालिक मसिजीवी रचनाकार के रूप में साहित्य-साधनारत रहे। 11 अप्रैल सन् 2009 को दिल्ली में विष्णु जी इस संसार से विदा ले गये । 

 

प्रकाशन

1) ढलती रात 1951

2) निशिकान्त 1955

3) तट के बंधन 1955

4) स्वप्नमयी 1956

5) दर्पण का व्यक्ति 1968

6) परछाई 1968

7) कोई तो 1980

8) अर्द्धनारीश्वर 1992

9) संकल्प

10) जीवन पराग 1963

11) आपकी कृपा है 1982

12) कौन जीता कौन हारा 1989

13) चन्द्रहार 1952

14) होरी 1955

15) सुनंदा 1984

16) आवारा मसीहा 1974

17) चलता चला जाऊँगा 2010(कविता संग्रह)

18) जमना गंगा के नैहर में 1964

19) हँसते निर्झर दहकती भट्टी 1966

20) अभियान और यात्राएँ (संपादित) 1964

21) हिमशिखरों की छाया में 1981

22) ज्योतिपुंज हिमालय 1982


सम्मान

पद्मभूषण, अर्धनारीश्वर उपन्यास के लिये भारतीय ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी सम्मान तथा साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार इत्यादि।

प्रभाकर जी गद्यकार के रूप में अधिक जाने जाते हैं । उन्होंने कविताएँ भी लिखी हैं। प्रस्तुत हैं उनकी दो प्रतिनिधि 


दो कविताएँ :

1. सागर की भाषा

सुना है

जिसके पास जो कुछ होता है

वही तो वह दे सकता है

देता है

घृणा हो या प्यार-

लेकिन क्या तुम जानते हो

क्या होता है तब

जब अर्पित कर देती है

अपना सर्वस्व, अपना माधुर्य

दुहिताएँ ‘हिमशिखरों’ की

उस सागर को

जो अथाह है

जो ओत-प्रोत है

क्षार और लवण से

क्या वह देता है

अपना लवण-क्षार उन नदियों को?

नहीं।

वह तो उनके जल को

बना देता है और भी मधुर

और भी पवित्र

और बरस जाता है, घटा बन कर

उन खेतों पर

खलिहानों पर

नगरों पर, शिखरों पर

जो जुड़े थे या नहीं जुड़े थे

उन सरिताओं से

जो समर्पित हो गई थी उसे

अकुण्ठ भाव से।

क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता

कि समुद्र नहीं जानता

भाषा मनुष्य की।

वह अपना क्षार

अपने तक ही सीमित रखता है

और प्रमाणित करता है

इस सत्य को कि

जो कुछ तुम देते हो

वही तो लौटता है

और भी पुष्ट होकर

काश! इक्क्सवीं सदी का

कम्प्यूटर-मानव

सीख सके भाषा यह समुद्र की ।


2. इक बार जलाओ तो

तुम खोज रहे हो अंधकार

औरों के अन्तर में।

अपने भीतर तो झाँको

वहाँ अंधकार ही अंधकार है।

डर गए,

पुकार उठे ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’

नहीं नहीं, प्रार्थना नहीं।

जलाओ अपने भीतर

एक नन्हा-सा दीया,

अपने तन की माटी का,

और भर दो उसमें

चेतना रूपी तेल।

सच कहते हो तेल में मिलावट है,

होने दो,

शुद्ध कर लेगी उसे

मन की बाती

जला कर जब स्वयं को

ज्योर्तिमय कर देगी

सम्पूर्ण जगत को।

एक बार जलाओ तो

एक बार जलाओ तो।

- विष्णु प्रभाकर


प्रस्तुति : डॉ. सुनीता यादव 

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