दिलीप कुमार...हिंदी सिनेमा का एक ऐसा अध्याय जिसमें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का सर्वाधिक फिल्मफेयर अवार्ड दर्ज है। 'ज्वार भाटा' (1944) से शुरू हुआ उनका फ़िल्मी पर्दे का सफ़र 2008 में 'नया दौर' के रंगीन संस्करण के रिलीज होने तक सक्रिय रहा। अदाकारी के हजारों रंगों को खुद में सहेजने वाला बॉलीवुड का महानायक भारतीय भाषाओं का भी नायक था। दिलीप कुमार बारह भाषाओं के जानकार थे। ब्रिटिश भारत के पेशावर में पैदा होने वाले यूसुफ़ खान की मातृभाषा हिंदको थी। बॉलीवुड में प्रवेश से पहले तक उन्हें चार भाषाएं अच्छी तरह से आती थीं। भाषाओं की जानकारी के आधार पर ही उन्हें अपने जीवन की पहली नौकरी मिली जबकि उर्दू पर अच्छी पकड़ ने उन्हें बॉम्बे टाकीज़ में एंट्री दिलाई थी।
कैंटीन में की पहली नौकरी
दिलीप कुमार के पिता जमींदार थे और उनका फलों का कारोबार था। पेशावर और नासिक में उनका फलों का बाग था। यूसुफ़ खान की प्राथमिक शिक्षा नासिक में ही हुई। वहां उन्हें मिश्रित धार्मिक—सांस्कृति परिवेश मिला, ठीक वैसा ही जैसा उनके दोस्त राजकपूर को मिला था। 1940 के मध्य में यूसुफ़ खान पिता से कुछ असहमति के बाद घर छोड़कर पुणे आ गए। यहां वह नौकरी की तलाश में लग गए। पुणे में उनकी मुलाकात एक पारसी कैफे संचालक और एंग्लो—इंडियन दंपती से हुई। यूसुफ़ को एक नौकरी चाहिए थी। एंग्लो इंडियन दंपती ने उनकी मुलाकात कैंटीन का ठेका लेने वाले एक व्यक्ति से कराई। यूसुफ़ खान ने पहली ही मुकालात में उसे प्रभावित कर दिया। उनकी अंग्रेजी बोलने और लिखने पर अच्छी पकड़ के चलते कैंटीन संचालक ने नौकरी दे दी। इस तरह दिलीप कुमार को उनकी पहली जॉब अंग्रेजी अच्छी होने के कारण मिली। यह पहली नौकरी कॉन्ट्रैक्ट पर थी। उन्होंने आर्मी क्लब में सैंडविच स्टाल खोला। और जब इस कॉन्ट्रैक्ट की मियाद पूरी हुई तो वह मुंबई अपने घर को लौट गए। उनकी पहली नौकरी से हुई कमाई की बचत 5000 रुपये थी।
ऐसे शुरू हुआ था सर्वकालिक महान कलाकार का सफ़रनामा
दिलीप कुमार का सिनेमाई सफ़र शुरू होने की कहानी भी बहुत रोचक है। यहां उन्हें ''नौकरी'' मिली उर्दू की जानकारी के दम पर। जी हां, यह नौकरी थी। पुणे से लौटने के बाद घर की वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्होंने कोई नया धंधा शुरू करने की ठानी। 1943 में उनकी मुलाकात डॉ. मसनी से हुई। वह उन्हें मलाड़ में बॉम्बे टाकीज़ ले गए। भारतीय सिनेमा की पहली महिला कही जाने वाली देविका रानी बॉम्बे टाकीज़ की मालकिन थीं। उन्होंने यूसुफ़ खान से 1250 रुपये प्रति माह वेतन पर कंपनी से अनुबंध करने का प्रस्ताव दिया। यूसुफ़ इसके लिए तैयार हो गए। देविका ने यूसुफ़ को स्टोरी—राइटिंग और स्क्रिप्टिंग डिपार्टमेंट में रखा, क्योंकि यूसुफ़ की उर्दू पर पकड़ अच्छी थी। देविका रानी ही थीं जिन्होंने यूसुफ़ खान को नाम बदलकर दिलीप कुमार करने की सलाह दी थी और 1944 में रिलीज़ हुई फिल्म ज्वार भाटा में दिलीप कुमार नाम से मुख्य भूमिका में लॉन्च किया।
भाषा कभी दिलीप कुमार के लिए नहीं बनी अड़चन
कहा जाता है कि कलाकार का मज़हब और जाति दोनों ही नहीं होते। कला ही उसका धर्म—ईमान होती है। अभिनय की हर कला में पारंगत दिलीप कुमार भाषा की कला भी बखूबी जानते थे। दिलीप कुमार की मातृभाषा हिंदको थी। ब्रिटिश राज में उन्होंने अंग्रेजी भी पढ़ी और उर्दू—हिंदी तो उस वक्त सबकी जुबां पर हुआ करती थी। इन भाषाओं के साथ ही दिलीप कुमार को पंजाबी, मराठी, बंगाली, गुजराती, पश्तो, फ़ारसी, अवधी, भोजपुरी भी आती थी। फिल्मी पर्दे पर दिलीप कुमार ने जिन भाषाओं में भी संवाद किए, बिल्कुल इस अंदाज में किए कि वह मातृभाषा हो। देश के उत्तरी हिस्से में बोली जाने वाली भोजपुरी और अवधी में उनके कई चर्चित डायलॉग हैं। भाषा कभी दिलीप कुमार के लिए कोई अड़चन नहीं बनी। उन्होंने हर उस भाषा को आत्मसात कर लिया, जिसमें संवाद करना होता था। दिलीप कुमार को पाकिस्तान ने अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान—ए—इम्तियाज़ से सम्मानित किया है।
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