त पांच वर्षों से प्रकाशित हो रही ई—पत्रिका 'परिवर्त' का ताजा अंक अवधी भाषा एवं साहित्य पर केंद्रित है। इस अंक के अतिथि संपादक हैं डॉ. शैलेंद्र कुमार शुक्ल। इस अंक में शामिल हैं लगभग 20 शोधपूर्ण आलेख, एक रेखा चित्र, दो यात्रा वृत्तांत, अवधी की 12 कविताएं—ग़ज़ल, अन्य भाषाओं से अवधी में अनूदित कुछ कविताएं, तीन कहानियां और व्यंग्य। 


संपादक महेश सिंह ने 'अपनी बात' में इस अंक के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए लिखा है—''इस अंक का मेरा अनुभव यही कहता है कि जिस प्रकार से संस्कृत अपने समकालीन भाषाओं को अपने आगोश में लेना चाहती थी उसी प्रकार आज हिंदी भी तमाम क्षेत्रीय भाषाओं को निगलने में लगी है। इस अंक के बाद मेरा मत यह है कि यदि जिंदा रहना चाहते हैं तो अपनी भाषा और संस्कृति की तरफ लौटिए, उसकी जड़ों को सींचिए, आपकी संजीवनी वहीं कहीं छुपाई हुई मिलेगी।''


इस अंक के अतिथि संपादक शैलेंद्र कुमार शुक्ल ने अपने संपादकीय वक्तव्य में अवधी के हक को केंद्र में रखा है। उन्होंने लिखा, संबिधान की अठईं अनुसूची मा अवधी भाषा को सामिल करौ!


अवधी की अस्मिता और अस्तित्व से जुड़े कई सवाल इस अंक में शामिल लेखों के जरिये उठाए गए हैं। अरुण कुमार त्रिपाठी, अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी, गुणशेखर, किशन पाठक, अनुराग आग्नेय, राघवेंद्र नाथ त्रिपाठी, तेजप्रताप टंडन, डॉ. वेदमित्र शुक्ल, रवि कुमार पांडेय, चंद्रकला त्रिपाठी, डॉ. शिप्रा श्रीवास्तव, प्रभाकर सिंह, डॉ. जया आनंद, षैजू के, डॉ. प्रियंका शुक्ला, आदित्य विक्रम सिंह, नम्रता, वसुंधरा बागला के आलेख पठनीय हैं। 


अवधी की कविताएं भी पठनीय हैं। भारतेंदु मिश्र दोहे में लिखते हैं —
टट्टर आवा गांव मा, सबके बैल बिकान। 
फिर टट्टर की किस्त मा बिका खेतु खरिहान।।


बजरंग बिहारी बजरू की अवधी गजलें अवध प्रदेश के रंगों में रंगी हैं —
जब बेमौसम पानी बरसे,
खोले डेहरी निकले नाग।


कुल मिलाकर इस पत्रिका का आगामी अंक आने तक आप अवधी केंद्रित अंक को सोते—जागते जब भी समय मिले पढ़ सकते हैं। 


इस पत्रिका के इसी अंक से अवधी के सदाबहार कवि रफ़ीक़ शादानी की वह कविता जिसकी पंक्तियां कभी लोगों की जुबां पर बस गई थीं —  


जियो बहादुर खद्दर धारी!

ई मँहगाई ई बेकारी, नफ़रत के फैली बीमारी 
दुखी रहे जनता बेचारी, बिकी जात बा लोटा-थारी। 
जियौ बहादुर खद्दर धारी! 


मनमानी हड़ताल करत हो, देसवा का कंगाल करत हो
खुद का मालामाल करत हो, तोहरेन दम से चोर बज़ारी।
जियो बहादुर खद्दर धारी!


धूमिल भै गाँधी के खादी, पहिरे लागे अवसरवादी 
या तो पहिरैं बड़े प्रचारी, देश का लूटो बारी-बारी। 
जियो बहादुर खद्दर धारी!


तन के गोरा, मन के गन्दा, मस्जिद मंदिर नाम पै चंदा 
सबसे बढ़ियाँ तोहरा धंधा, न तो नमाज़ी, न तो पुजारी 
जियौ बहादुर खद्दर धारी!


सूखा या सैलाब जौ आवै, तोहरा बेटवा खुसी मनावै 
घरवाली आँगन मा गावै. मंगल भवन अमंगल हारी। 
जियौ बहादुर खद्दर धारी!


झंडे झंडा रंग-बिरंगा, नगर-नगर मा कर्फ्यू दंगा 
खुसहाली मा पड़ा अहंगा, हम भूखा तू खाव सोहारी 
जियो बहादुर खद्दर धारी!


बरखा मा विद्यालय दहिगा, वही के नीचे टीचर रहिगा 
नहर के खुलते दुई पुत बहिगा, तोहरेन पूत के ठेकेदारी। 
जियो बहादुर खद्दर धारी!


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पहले मैं भी अवधी, राजस्थानी, कूर्माचली आदि भाषाओं को 'हिंदी की बोलियाँ मानता था। 'हिंदी शब्दानुशासन' में भी यथा प्रसंग ऐसा ही लिखा है। परंतु 'भारतीय भाषाविज्ञान' लिखते समय जब भाषा की परिभाषा की, तो मत बदल गया और निश्चय हुआ कि अवधी, पांचाली, राजस्थानी आदि स्वतंत्र भाषाएँ हैं। इन सबके अपने-अपने स्वतंत्र नियम और विधि-विधान हैं। इन्हें स्वतंत्र भाषा न मानकर 'हिंदी की बोलियाँ ही कहें तो फिर बांग्ला, मराठी, गुजराती आदि को भी हिंदी की बोलियाँ कहना होगा।

— किशोरीदास बाजपेयी

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