‘हिंदी के रोमनीकरण की चुनौतियां और समाधान की दिशा’ विषय पर ऑनलाइन संगोष्ठी
प्रोलिंगो न्यूज : हम हिंदी को रोमन लिपि में लिखने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। मोबाइल पर संदेश या सोशल साइट्स पर कुछ लिखना हो, हम रोमन में अपनी बात लिखने में संकोच नहीं करते हैं। हमारी यह प्रवृत्ति देवनागरी लिपि के अस्तित्व पर खतरा बनकर मंडराने लगी है। चेतन भगत जैसे भारतीय अंग्रेजी के कुछ लेखकों ने रोमन लिपि में लिखी हिंदी को ही मानक मान लेने की सलाह दे डाली है। क्या यह हिंदी की सेहत के लिए ठीक है? हिंदी के नामचीन विद्वान ऐसे ही प्रश्नों से दो—चार हुए। अवसर था केंद्रीय हिंदी संस्थान, विश्व हिंदी सचिवालय के तत्वावधान में वैश्विक हिंदी परिवार की ओर से ‘हिंदी के रोमनीकरण की चुनौतियां और समाधान की दिशा’ विषय पर ऑनलाइन संगोष्ठी का। कार्यक्रम में उपस्थित हर वक्ता ने इस प्रवृत्ति को हिंदी के लिए घातक बताया। उन्होंने माना कि हिंदी के रोम—रोम में समाती जा रही रोमन लिपि एक बड़ा खतरा है।
वरिष्ठ लेखक और केंद्रीय हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष अनिल जोशी ने कहा कि हिंदी का रोमनीकरण एक गंभीर चुनौती है। देवनागरी लिपि ख़तरे में है। हिंदी को बोलचाल की भाषा के रूप में सिमटाने की कोशिश दिखाई दे रही है। हिंदी और देवनागरी को अलग नहीं किया जा सकता और बड़े स्तर पर हमें भाषा के लिए लड़ाई लड़नी होगी। उन्होंने कहा कि फिजी, भारत, त्रिनिदाद आदि देशों के पारंपरिक ज्ञान को अंग्रेजों ने सदैव उपेक्षित किया है। आज के दौर में जब तक हमारी भाषाएं रोजगार का माध्यम नहीं बनेंगी तब तक नई पीढ़ी को आकर्षित नहीं किया जा सकता। उन्होंने आह्वान किया कि इस विषय में एक नीतिगत दस्तावेज तैयार किया जाए और उसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों, मंत्रियों एवं संस्थाओं को भेजना जाए। इसमें नागरी लिपि परिषद एवं अन्य व्यक्ति तथा संस्थाओं को आगे आना होगा और इस पर नियमित रुप से विमर्श आगे बढ़ाना होगा। उड़ीसा का अनुभव साझा करते हुए उन्होंने कहा कि वहां उड़िया को कंप्यूटर कौशल के साथ जोड़ा गया है। उन्होंने एक समिति की आवश्यकता पर बल दिया जो पूरे देश में इन मुद्दों पर ध्यान दे और विमर्श करते हुए निष्कर्षों को समेकित एवं संकलित करे। ऐसे प्रयासों को केंद्रीय हिंदी संस्थान की ओर से हर तरह का सहयोग देने का उन्होंने आश्वासन दिया।
वरिष्ठ लेखक और भाषाविद डॉ. राजेश कुमार ने कहा कि भाषा और लिपि का संबंध शरीर और आत्मा जैसा होता है। किसी भाषा की लिपि कालांतर में विकसित होती है जिसमें आज के युग में निरंतर प्रगति करती प्रौद्योगिकी की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। केंद्रीय हिंदी संस्थान मैसूर केंद्र के क्षेत्रीय निदेशक परमान सिंह ने कहा कि हमें आज भाषाई अस्मिता एवं संस्कृति की चुनौतियों से गुजरना पड़ रहा है और ऐसे समय में अपनी भाषा और लिपि पर चर्चा बहुत महत्वपूर्ण है। कार्यक्रम का संचालन प्रारंभ करते हुए डॉ. जवाहर कर्णावट ने कहा कि हिंदी की स्वाधीनता संग्राम में विशेष भूमिका रही है किंतु पिछली सदी बड़ी चुनौतियों की रही है और देवनागरी के स्थान पर रोमनीकरण करना एक बहुत बड़ा संवैधानिक संकट भी होगा क्योंकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 343 (1) देवनागरी लिपि में हिंदी को राजभाषा का दर्जा देता है। भाषा का हिंग्लिशीकरण एक और गंभीर चुनौती है।
वरिष्ठ पत्रकार और भाषा चिंतक राहुल देव ने महात्मा गांधी की पुस्तक एवं विभिन्न सम्मेलनों में दिए भाषणों का संदर्भ देते हुए हिंदी की महत्ता को स्थापित किया। उन्होंने कहा कि आज का बच्चा सबसे पहले अंग्रेजी के क्यूडब्ल्यूईआरटी कुंजीपटल से टंकण सीखता है तो आगे के जीवन में वह कैसे हिंदी लिखने और देवनागरी को सीखेगा और क्यों सीखेगा? हिंदी के विषय में भारत सरकार सहित पूरे देश ने अनेक अदूरदर्शिताएं की हैं, जिनका दुखद परिणाम हमारे सामने है और भारतीय लिपियां एवं भाषाएं बदलते कंप्यूटरीकरण के युग में कमजोर हुई हैं और नया कुंजीपटल सीखना अरुचिकर है। यह भारत की सभी भाषाओं और लिपियों के समक्ष बहुत नजदीक का संकट है। इसका समाधान विज्ञापन एजेंसियां, सरकार, समाज सभी को मिलकर सोचना होगा।
आंध्र प्रदेश जनजातीय विश्वविद्यालय के कन्नड़भाषी कुलपति प्रो. तेजस्वी वी कट्टीमणि ने कहा कि कंप्यूटर, मोबाइल के आगमन के समय ही तुरंत हमें हिंदी टंकण के विषय में सोचना चाहिए था जो कि नहीं हो पाया। रोमनीकरण के समाधान की ओर चर्चा करते हुए आपने कहा कि कुंजीपटल निर्माण, सॉफ्टवेयर तैयार करने, हिंदी माध्यम की शिक्षा का प्रचार-प्रसार की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।
कार्यक्रम में अपने विचार रखते हुए केन्द्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान के निदेशक एवं भाषा चिंतक डॉ बरुण कुमार ने कहा कि हमने एक उपनिवेशवाद से आजादी तो पाई थी किंतु अभी भी मानसिक दासता से आजाद नहीं हो पाए हैं। आज भी सारा बालीवुड रोमन में ही संवाद पढ़ता है और बदली हुई परिस्थिति में तो हमने हैरान होना भी छोड़ दिया है। चेतन भगत और असगर बजाहत के प्रस्ताव पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि अंग्रेजी को देवनागरी में क्यों न लिखा जाए? उन्होंने कहा कि यदि हम रोमन की ओर मुड़ेंगे तो हमारा अतीत भी बदलना होगा और भारतीय पारंपरिक ज्ञान, अध्यात्म को भी रोमन में करना होगा। यह बहुत खर्चीला एवं अनुपयोगी होगा।
प्रो. सुरेन्द्र गंभीर ने विमर्श की व्यापकता के लिए कहा कि हम सब देवनागरी के संबंध में ही बोलने वाले हैं और हमें दूसरे पक्ष के लोग जो रोमनीकरण की वकालत करते हैं, ऐसे लोग जैसे चेतन भगत, मधुकर भोगटे का पक्ष भी सुनना चाहिए था। रोमनीकरण करने से भारतीय भाषाओं की दूरी के संबंध में उन्होंने कहा कि संसार में अनेक देशों ने राजनीतिक एवं धार्मिक दबावों में अपनी लिपि को छोड़कर रोमन को अपनाया है जैसे तुर्की, इंडोनेशिया, वियतनाम आदि और इससे वे देश अपने आपको यूरोप के नजदीक समझते हैं। हिंदी और संस्कृत के शब्दों जैसे कि ओम जय जगदीश हरे को रोमन में लिखने और महाप्राण के उच्चारण संबंधी समस्याओं की ओर उन्होंने ध्यान आकृष्ट किया।
नागरी प्रचारिणी सभा के हरि सिंह पाल ने सौरभ पत्रिका का लोकार्पण किया और कहा कि बताया कि इस पत्रिका में सभी लेख पूरे विश्व से सभी क्षेत्रों के विद्वानों ने देवनागरी में भेजे हैं। मानकीकरण के विषय में उन्होंने कहा कि पहले देवनागरी को सार्वभौमिक रुप से स्वीकार किया जाए। चिंतित करने वाली बात है कि भारत सरकार अनुदान कम करती जा रही है जिससे स्वयंसेवी संस्थाएं भाषा एवं लिपि प्रचार में कम रुचि लेंगी।
कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. अमरनाथ ने कहा कि आज बच्चे क ख ग के स्थान पर ए बी सी डी पहले सीखते हैं इसलिए वे अंग्रेजी और रोमन में ज्यादा सहज हैं। लिपियों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि भाषा किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है लेकिन एक लिपि न अपनाने से भाषा के भविष्य पर भी संकट गहराएगा। उन्होंने कहा कि हिंदी, बंग्ला, उड़िया आदि भारतीय भाषाओं को देवनागरी में आगे लाना चाहिए जिससे भाषाएं रोजगार से जुड़ें। कार्यक्रम में सभी वक्ताओं, सहयोगी संस्थाओं एवं सहभागियों का आभार पद्मेश गुप्त ने किया।

FIND US ON GOOGLE NEWS
Post a Comment